Milkha Singh passed away: नहीं रहे फ्लाइंग सीख मिल्खा सिंह

Milkha Singh

मिल्खा सिंह (20 नवंबर 1929 – 18 जून 2021) फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अमर हो गए। उनका सफर यही तक का था वह हमलोगों को अलविदा कह गए। वह एक मिसाल हैं जो युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हमेशा रहेंगे। उन्हें ट्रैक और फील्ड का मास्टर धावक कहा जाता था। 12 वर्ष की आयु में जब भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ था वह अपने माता पिता को खो दिए थे। उन्हें उस वक़्त अपने ज़िन्दगी के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी पर उन्होंने अपने मेहनत और हौसलों के बल पर भारत को ट्रैक और फील्ड के धावक के रूप में कई पदक दिलाया। उनका जीवन हमे हमेशा प्रेरणा देगा। हमें उनके जीवन से सीखने के लिए बहुत सारी बाते है जिसे हम अपने जीवन में इस्तेमाल कर कामयाबी की सीढ़ी चढ़ सकते हैं।

मिल्खा सिंह

मिल्खा सिंह का जीवन:
20 नवंबर 1929 को गोविंदपुरा, पंजाब(जो अब पाकिस्तान का हिस्सा हैं) में एक सिख परिवार में हुआ था । 1947 में भारत पाकिस्तान के विभाजन के वक़्त उन्होंने अपने माता पिता को खो दिया। उस वक़्त उनकी आयु 12 वर्ष थी। 12 साल का वो लड़का अपनी ज़िंदगी बचाने के लिए शरणार्थी बन ट्रेन में पाकिस्तान से दिल्ली आ गए। मिल्खा सिंह को बचपन से ही खेल-कूद से काफी लगाव था। अपने भाई हवलदार मखान सिंह के कहने पर वो भारतीय सेना में भर्ती होने के लिए गए। लगातार 4 बार कोशिश करने के बाद सं 1951 में विद्युत मैकेनिकल इंजीनियरिंग शाखा में भर्ती हो गए। सेना में रहते हुए ही उन्होंने अपने कौशल को और निखारा। एक क्रॉस-कंट्री दौड़ में 400 से अधिक सैनिकों के साथ दौड़ने के बाद छठे स्थान पर आने वाले मिल्खा सिंह को आगे की ट्रेनिंग के लिए चुना गया। जिसने प्रभावशाली करियर की नींव रखी।

मिल्खा सिंह ट्रेक पर भागते हुए

मिल्खा सिंह का कैरियर:
सेना में आयोजित होने वाले खेल में वह भाग लेकर 400 मीटर की दूरी को 1 मिनट 30 सेकेंड के अंदर पूरा कर लिया। स्टार मिल्खा सिंह ने अपनी गति और खेल के लिए जुनून की भावना के साथ एक दशक से अधिक समय तक ट्रैक एंड फील्ड के बादशाह रहे। उन्होंने कई रिकॉर्ड बनाएं और कई पदक जीते। मेलबर्न में 1956 ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया।ओलंपिक खेलों में उनका यह पहली बार प्रयास किया था। भले ही उनका अनुभव अच्छा न रहा हो लेकिन ये टूर उनके लिए आगे चलकर फलदायक साबित हुआ। 200 मीटर और 400 मीटर की स्पर्धाओं में भाग लेने वाले अनुभवहीन मिल्खा सिंह गर्मी के स्टेज से बाहर नहीं निकल सके, लेकिन चैंपियन चार्ल्स जेनकिंस के साथ एक मुलाकात ने उन्हें अपने भविष्य के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा और ज्ञान दे दिया। मिल्खा सिंह ने जल्द ही अपने ओलंपिक में निराशाजनक प्रदर्शन को पीछे छोड़ दिया और 1958 में उन्होंने जबरदस्त एथलेटिक्स कौशल प्रदर्शित किया, जब उन्होंने कटक में नेशनल गेम्स ऑफ इंडिया में अपने 200 मीटर और 400 मीटर स्पर्धा में रिकॉर्ड बनाए।
मिल्खा सिंह ने राष्ट्रीय खेलों के अलावा, टोक्यो में आयोजित 1958 एशियाई खेलों में 200 मीटर और 400मीटर की स्पर्धाओं में और 1958 के ब्रिटिश साम्राज्य और राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मी (440 गज की दूरी पर) में स्वर्ण पदक जीते। उनकी अभूतपूर्व सफलता ही थी जिसकी वजह से उन्हें उसी वर्ष पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद रोम में 1960 के ओलंपिक और टोक्यो में 1964 के ओलंपिक में मिल्खा सिंह अपने शानदार प्रदर्शन के साथ दशकों तक भारत के सबसे महान ओलंपियन बने रहे।
मिल्खा सिंह की 46.6 सेकंड की टाइमिंग ने उन्हें स्वतंत्र भारत की ओर से कॉमनवेल्थ गेम्स में पहला स्वर्ण पदक दिलाया, और वह एकमात्र भारतीय पुरुष हैं जिन्होंने व्यक्तिगत एथलेटिक्स कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने का रिकॉर्ड 56 सालों तक बरकरार रखा। इससे पहले कि विकास गौड़ द्वारा 2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीता जाता, ये रिकॉर्ड मिल्खा सिंह के नाम ही दर्ज था। कृष्णा पूनिया द्वारा 2010 में डिस्कस थ्रो में स्वर्ण पदक जीतने से पहले मिल्खा सिंह ने 52 साल तक “व्यक्तिगत एथलेटिक्स कॉमनवेल्थ गेम्स स्वर्ण पदक जीतने वाले एकमात्र भारतीय” होने का टैग भी अपने पास ही रखा था।
अपने चरम पर पहुंच चुके मिल्खा सिंह ने विभाजन के बाद एक दौड़ के लिए पाकिस्तान जाने का फैसला किया, और उन्होंने अन्य प्रतियोगियों से आगे को पीछे छोड़कर सबसे आगे निकलते हुए शानदार प्रदर्शन किया। इस भारतीय के प्रदर्शन को देखकर पाकिस्तान के जनरल अयूब खान ने उन्हें “द फ्लाइंग सिख” का नाम दिया।हालाँकि, मिल्खा सिंह के करियर में सबसे नाटकीय पल आना बाकी था। रोम में 1960 के समर ओलंपिक खेलों में वो भारत के सबसे बड़े पदक उम्मीदों में से एक थे, और उनके शानदार प्रदर्शन को देखकर देश उनसे उम्मीदों पर खरे उतरने की उम्मीद कर रहा था। 400 मीटर में दौड़ते हुए मिल्खा सिंह 200 मीटर के निशान तक आगे बढ़ रहे थे, उसके बाद उन्होंने आराम से दौड़ने का फैसला किया, यहीं एक गलती हुई जिसने दूसरों को उनसे आगे निकलने का मौका दिया। दौड़ में कई रिकॉर्ड टूटते हुए देखे गए और अंततः विजेताओं की घोषणा करने के लिए फोटो फिनिश की आवश्यकता पड़ी। जहां संयुक्त राज्य अमेरिका के ओटिस डेविस ने जर्मनी के कार्ल कॉफमैन को कुछ पलों के अंतर से पीछे छोड़कर दौड़ जीती थी, वहीं उस रेस में मिल्खा सिंह 45.73 के समय के साथ चौथे स्थान पर रहे थे – ये एक राष्ट्रीय रिकॉर्ड था जो 40 वर्षों तक नहीं टूटा था।। धीरे-धीरे अपने करियर में आगे बढ़ते हुए मिल्खा सिंह के करियर का मुख्य आकर्षण 1964 का एशियाई खेल था जहाँ उन्होंने 400 मीटर और 4×400 मीटर रिले स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते।

मिल्खा सिंह अपने पत्नी निर्मला कौर के साथ

निजी ज़िन्दगी:
मिल्खा सिंह ने भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम के पूर्व कप्तान निर्मला कॉल से सन 1962 में शादी की उनकी तीन बेटियां और एक बेटे थे उनका बेटा जीव मिल्खा सिंह अंतरराष्ट्रीय गोल्ड प्लेयर है 1999 में मिल्खा सिंह ने निर्मला कोर्ट के बैटल ऑफ टाइगर हिल के मारे जाने वाले हवलदार विक्रम सिंह के साथ साल की बेटी को गोद लिया था |

मिल्खा सिंह पर बनी फ़िल्म:
लंबे समय तक मिल्खा सिंह ने अपने दौड़ने वाले जूते लटका दिए थे। उन्होंने और उनकी बेटी सोनिया सानवालका ने अपनी आत्मकथा “द रेस ऑफ माय लाइफ” लिखी थी, जो जुलाई 2013 में प्रकाशित हुई थी। बाद में इस पुस्तक को एक बायोपिक में बदल दिया गया, जिसका नाम था भाग मिल्खा भाग, जिसे राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने निर्देशित किया था और अभिनेता फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह की भूमिका निभाई थी। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 2.1 बिलियन की कमाई की थी।

मिल्खा सिंह को कैसे मिला ‘फ्लाइंग सिख’ का नाम, पाकिस्तान की कहानी:
इस फर्राटा धावक को ‘फ्लाइंग सिख’ कहा जाता था।
बेशक, यह नाम उन्हें उनकी रफ्तार की वजह से मिला था लेकिन इसके पीछे का घटनाक्रम भी जानने योग्य है।
1958 के कॉमनवेल्थ गेम्स में मिल्खा सिंह ने गोल्ड मेडल जीता था। यह आजाद भारत का पहला गोल्ड मेडल था। हालांकि इसके बाद 1960 के रोम ओलिंपिक में मिल्खा पदक से चूक गए थे। इस हार का उनके मन में गम था। इसके बाद साल 1960 में ही उन्हें पाकिस्तान के इंटरनैशनल ऐथलीट कंपीटीशन में न्योता मिला। मिल्खा के मन में बंटवारे का दर्द था। वह पाकिस्तान जाना नहीं चाहते थे। हालांकि बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला किया। पाकिस्तान में उस समय अब्दुल खालिक का जोर था। खालिक वहां के सबसे तेज धावक थे। दोनों के बीच दौड़ हुई। मिल्खा ने खालिक को हरा दिया। पूरा स्टेडियम अपने हीरो का जोश बढ़ा रहा था लेकिन मिल्खा की रफ्तार के सामने खालिक टिक नहीं पाए। मिल्खा की जीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने ‘फ्लाइंग सिख’ का नाम दिया। अब्दुल खालिक को हराने के बाद अयूब खान मिल्खा सिंह से कहा था, ‘आज तुम दौड़े नहीं उड़े हो। इसलिए हम तुम्हें फ्लाइंग सिख का खिताब देते हैं।’ इसके बाद ही मिल्खा सिंह को ‘द फ्लाइंग सिख’ कहा जाने लगा।

मिल्खा सिंह की कही कुछ बाते:

अपने जमीर को कभी किसी को
पैर की धूल मत बनने दीजिये।

-मिल्खा सिंह

पेट ही सबकुछ करवाता है
तभी जाके इंसान की ज़िंदगी बनती है

– मिल्खा सिंह

हाथ की लकीर से ज़िन्दगी नही बनती,
अजम हमारा भी कुछ हिस्सा ज़िन्दगी बनाने का

-मिल्खा सिंह

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